अज़ीब सा कालखण्ड जी रहा हूँ मैं ,
एक ओर रश्मि-विकिरण का अथाह प्रसार ,
दूसरी ओर घृणित जीवन का उत्कर्षण ,
एक ओर मानवता का सुकुमार स्पर्श ,
दूसरी ओर क्षुब्धता में डूबा स्फोटक आवेग ,
एक ओर जीवन-ज्योति के प्रज्वलन के ,
समवेत अतिशय प्रयास ,
दूसरी ओर अँधियारे कमरे में पसरा ,
राक्षसी स्वार्थ का विकराल रूप ,
एक ओर सर्वस्व होम करने का सत्-चित् प्रयाण ,
दूसरी ओर परछिद्रान्वेषण में डूबे विक्षिप्त मस्तिष्क !
पर सत्-चेतना का संघर्ष जारी है ,
यूँ भी तिमिर-तल को भेदकर ही ,
चमकते हैं कालजयी पत्थर ,
आत्मा को विदीर्ण करते शिलाखण्डों से ही ,
निकलते हैं शीतल जल-प्रपात ,
पथरीले पथ से आहत होकर ही ,
अग्रसर होता है नदिया का प्रवाह ,
सृजन की ग्रंथियाँ भले ही उलझी हैं ,
इस कालखण्ड की चुनौतियाँ भले ही गम्भीर हैं ,
पर परीक्षा की घड़ी ही चुनती है स्थित-प्रज्ञ ,
इसका आत्मसात् ही खोलता है विजय-द्वार ,
और विजय से कम नहीं है अब कोई लक्ष्य !!

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