ग़म को फस्ले बहार करना था
तब खुशी का शुमार करना था
हुस्न को साज़गार करना था
इश्क़ को खाकसार करना था
ज़र्फ को पुरवक़ार करना था
सब्र से हमकिनार करना था
उस की रहमत से दाग़ धुल जाते
आँख को अश्कबार करना था
बेदिली से सही मगर दिल को
ख्वाहिशों का मज़ार करना था
ज़िंदगी रेगज़ार है फिर भी
हम को ये दश्त पार करना था
खाक के इंकिसार से रब को
रूह को खुशगवार करना था
अज्र के शौक़ में तुझ बंदे
नेकियाँ बेशुमार करना था
चाहतों से नवाज़ कर उस ने
ताज को ताजदार करना था
मुनव्वर अली “ताज”
उज्जैन 098934 98854
उस की रहमत से दाग़ धुल जाते
आँख को अश्कबार करना था
mashaallah bohat koob
बेदिली से सही मगर दिल को
ख्वाहिशों का मज़ार करना था
वाह खूबसूरत ग़ज़ल कही वाह /////////////
ताज साहब वाह वाह क्या ही अच्छे शेर निकाले। ज़िंदगी की हज़ारों धूप-छाँव देखने के बाद ही ऐसा दर्स से भरा ज़हन तैयार होता है। आपके ये दोनों शेर उसी की निशानदेही कर रहे हैं। सैकड़ों दाद क़ुबूल फ़रमाइये।
उस की रहमत से दाग़ धुल जाते
आँख को अश्कबार करना था
बेदिली से सही मगर दिल को
ख्वाहिशों का मज़ार करना था
उस की रहमत से दाग़ धुल जाते
आँख को अश्कबार करना था
SUBHANALLAH
Mashallah
Subhanallh