प्रस्तुत लेख में NCERT द्वारा कक्षा ६ के लिए प्रकाशित पुस्तक रुचिरा भाग १ के दशमः पाठः (कृषिकाः कर्मवीराः) सर्वनामप्रयोग दिए गए संस्कृत वाक्यों का हिंदी अनुवाद एवं सभी अभ्यास प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं।
(कृषिका: कर्मवीराः) पाठ का हिन्दी अनुवाद –
सूर्यस्तपतु मेघाः वा वर्षन्तु विपुलं जलम्।
कृषिका कृषिको नित्यं शीतकालेऽपि कर्मठौ ॥1॥
अन्वयः- सूर्यः तपतु मेघाः वा विपुलं जलं वर्षन्तु। कृषिका कृषिकः नित्यं शीतकाले अपि कर्मठौ।
अर्थ – चाहे सूरज तपाये चाहे बादल अत्यधिक जल बरसायें। किसान और उसकी पत्नी दोनों हमेशा सर्दी में भी कार्य करते रहते हैं। अर्थात् किसान सर्दी, गर्मी, बारिश आदि सभी ऋतुओं में सदा खेत में काम लगे रहते हैं।
ग्रीष्मे शरीरे सस्वेदं शीते कम्पमयं सदा।
हलेन च कुदालेन तौ तु क्षेत्राणि कर्षतः ॥2॥
अन्वयः- ग्रीष्मे शरीरं सस्वेदं, शीते कम्पमयं। तौ तु हलेन कुदालेन च सदा क्षेत्राणि कर्षतः।
अर्थ- गर्मी में उनका शरीर पसीने से युक्त रहता है और सर्दी में ठंड से काँपता रहता है। फिर भी वे दोनों हल और कुदाल से सदा खेतों को जोतते है।
पादयोर्न पदत्राणे शरीरे वसनानि नो।
निर्धनं जीवनं कष्टं सुखं दूरे हि तिष्ठति ॥3॥
अन्वयः- पादयोः पदत्राणे न, शरीरे वसनानि न। निर्धनं कष्टं जीवनं, हि सुखं दूरे तिष्ठति।
अर्थ- पैरों में जूते नहीं है, शरीर पर कपड़े नहीं हैं। (किसान का) जीवन बहुत निर्धन और कष्टमय है। सुख तो उनसे दूर ही रहता है।
गृहं जीर्णं न वर्षासु वृष्टिं वारयितुं क्षमम्।
तथापि कर्मवीरत्वं कृषिकाणां न नश्यति ॥4॥
अन्वयः- जीर्णं गृहं वर्षासु वृष्टिं वारयितुं न क्षमम्। तथापि कृषिकाणां कर्मवीरत्वं न नश्यति।
अर्थ- किसान का घर पुराना होने के कारण वर्षा के समय बारिश का पानी रोकने में असमर्थ है। फिर भी किसानों की कर्मनिष्ठा नष्ट नहीं होती है। अर्थात् वे अपने काम में लगे रहते हैं।
तयोः श्रमेण क्षेत्राणि सस्यपूर्णानि सर्वदा।
धरित्री सरसा जाता या शुष्का कण्टकावृता ॥5॥
अन्वय:- तयोः परिश्रमेण क्षेत्राणि सर्वदा सस्यपूर्णानि। या धरित्री शुष्का कण्टकावृता सरसा जाता।
अर्थ- उन दोनों के (किसान और उसकी पत्नी के) परिश्रम से खेत सदा फसलों से युक्त रहते हैं। जो धरती सूखी और काँटों से परिपूर्ण होती है वह भी हरी-भरी हो जाती है।
शाकमन्नं फलं दुग्धं दत्त्वा सर्वेभ्य एव तौ।
क्षुधा- तृषाकुलौ नित्यं विचित्रौ जन-पालको ॥6॥
अन्वयः- तौ सर्वेभ्य एव शाकम्, अन्नं, फलं, दुग्धं च दत्त्वा नित्यं क्षुधा- तृषाकुलौ। विचित्रौ जन-पालकौ।
अर्थ- वे दोनों सभी को सब्जी, अनाज, फल और दूध देकर स्वयं भूख और प्यास से बेचैन रहते हैं। वे दोनों अनोखे जन- पालक है। अर्थात् दूसरों को खाने- पीने की वस्तुएँ उपलब्ध करवाने वाले किसान स्वयं भूखे-प्यासे रहते हैं। ये कितनी विचित्र बात है।