हमने कब चांद को जमीन पर उतार लाने की जिद की है,
हमने जुगनूओं के पीछे भागकर रोशनी पकडनी सीखी है,
कलाई में वक्त की मशीन बांधकर घूमता रहा है ये जमाना,
आदत में है शामिल शून्य खोजने के लिए शून्य मेंं उतर जाना,
नदी के किनारे मौजूद गीली रेत ने घरौंदे बनाना सिखाया है,
भोर पडे चिडियों की चहचाहट ने संगीत का स्वाद बताया है,
सुबह का उगता सूरज शाम का ढलता सूरज हमें लुभाता है,
वह हम ही तो हैं जिन्हें बचपन से ही “चंदा मामा” बुलाता है,
उंचे उंचे हिम शिखरों के मौन नाद हमारे कानों को रिझाते हैं,
नंगी जमीन पर लेटकर आये मीठी नींद के झौके सुहाते हैं,
छोटी छोटी हसरतें छोटे छोटे ख्वाब मजबूत इरादों की बारात,
अपने आपमें ही खोई सी हस्ती जमीन पर टिकी हुई औकात,
छोटे से दिल की छोटी सी हसरतें रोटी रोजी में सिमटी हद,
लम्हों में सदियों को खोजने की यही तो है बस एक “जिद”
ये चांद पर बस्तियां बनाने के ख्वाब तुमने ही तो संजोये हैं,
हमने तो “जिद” में आकर बिखरे मोती माला में पिरोये हैं।-PK! PKVishvamitra!!